कर्मयोग (भगवत गीता का मनोविज्ञान)

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कर्मयोग का आधार-सूत्र अधिकार है कर्म में, फल में नहीं, करने की स्‍वतंत्रता है, पाने की नहीं। क्‍योंकि करना एक व्‍यक्ति से निकलता है, और फल समष्टि से निकलता है। मैं जो करता हूं, वह मुझसे बहता है, लेकिन जो होता है, उसमें समस्‍त का हाथ है। करने की धारा तो व्‍यक्ति की है, लेकिन फल का सार समष्टि का है। इसलिए कृष्‍ण कहते हैं, करने का अधिकार है तुम्‍हारा, फल की आकांक्षा अनधिकृत है। लेकिन हम उलटे चलते हैं, फल की आकांक्षा पहले और कर्म पीछे। हम बैलगाड़ी को आगे और बैलो को पीदे बांधते हैं कृष्‍ण कर रहे हैं, कर्म पहले, फल पीछे आता है – लाया नहीं जाता। लाने की कोई सामर्थ्‍य मनुष्‍य की नहीं है, करने की सामर्थ्‍य मनुष्‍य की है क्‍यों? ऐसा क्‍यों है- क्‍योंकि मैं अकेला नहीं हूं, विराट है।

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कर्मयोग का आधार-सूत्र अधिकार है कर्म में, फल में नहीं, करने की स्‍वतंत्रता है, पाने की नहीं। क्‍योंकि करना एक व्‍यक्ति से निकलता है, और फल समष्टि से निकलता है। मैं जो करता हूं, वह मुझसे बहता है, लेकिन जो होता है, उसमें समस्‍त का हाथ है। करने की धारा तो व्‍यक्ति की है, लेकिन फल का सार समष्टि का है। इसलिए कृष्‍ण कहते हैं, करने का अधिकार है तुम्‍हारा, फल की आकांक्षा अनधिकृत है। लेकिन हम उलटे चलते हैं, फल की आकांक्षा पहले और कर्म पीछे। हम बैलगाड़ी को आगे और बैलो को पीदे बांधते हैं कृष्‍ण कर रहे हैं, कर्म पहले, फल पीछे आता है – लाया नहीं जाता। लाने की कोई सामर्थ्‍य मनुष्‍य की नहीं है, करने की सामर्थ्‍य मनुष्‍य की है क्‍यों? ऐसा क्‍यों है- क्‍योंकि मैं अकेला नहीं हूं, विराट है।

Additional information

Author

Osho

ISBN

8189182927

Pages

288

Format

Paperback

Language

Hindi

Publisher

Fusion Books

ISBN 10

8189182927