काका के व्यंग्य वाण
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- Book Details
चाहे सामाजिक कुरीतियां हो अथवा आधुनिक कृत्रिम सभ्यता की विसंगतियां, धार्मिक दुराग्रह हो अथवा आर्थिक विषमताएं और शोषण की वृत्तियां, देश में व्याप्त राजनीतिक विडंबनाएं एवं विद्रूपताएं हों अथवा असंगत साहित्यिक परिस्थितियां, काका की सूक्ष्म दृष्टि से कोई नहीं बच पाता। उन्होंने समाज को बड़ी गहराई से देखा है। इसी कारण उन्होंने उन सभी पर व्यंग्यबाण छोड़े हैं, जिनका संबंध सामाजिक जीवन से है। इस पुस्तक में काका के उन व्यंग्यबाणों को संगृहित किया गया है, जिन्होंने समाज की विडंबनाओं और कुरूपताओं पर व्यापक प्रहार किया है, साथ ही समाज सुधार का व्यापक प्रयास भी है।
Additional information
Author | Kaka Hathrasi |
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ISBN | 8128806955 |
Pages | 136 |
Format | Paperback |
Language | Hindi |
Publisher | Diamond Books |
ISBN 10 | 8128806955 |
चाहे सामाजिक कुरीतियां हो अथवा आधुनिक कृत्रिम सभ्यता की विसंगतियां, धार्मिक दुराग्रह हो अथवा आर्थिक विषमताएं और शोषण की वृत्तियां, देश में व्याप्त राजनीतिक विडंबनाएं एवं विद्रूपताएं हों अथवा असंगत साहित्यिक परिस्थितियां, काका की सूक्ष्म दृष्टि से कोई नहीं बच पाता। उन्होंने समाज को बड़ी गहराई से देखा है। इसी कारण उन्होंने उन सभी पर व्यंग्यबाण छोड़े हैं, जिनका संबंध सामाजिक जीवन से है। इस पुस्तक में काका के उन व्यंग्यबाणों को संगृहित किया गया है, जिन्होंने समाज की विडंबनाओं और कुरूपताओं पर व्यापक प्रहार किया है, साथ ही समाज सुधार का व्यापक प्रयास भी है।
ISBN10-8128806955