Kuchh Khwab Bo To Gaya (कुछ ख़्वाब बो तो गया)

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ज़िक्र से महबूब की तस्वीर सी होती ग़ज़ल, फ़िक्र से सारे जहां की पीर सी होती ग़ज़ल। वक्त के हालात की तहरीर सी होती ग़ज़ल, बेकसों के ख्वाब की तामीर सी होती ग़ज़ल। फूल की इक पंखुरी से नर्मो-नाजुक है बहुत, और जब ललकारती, शमशीर सी होती ग़ज़ल। एक अल्हड़ सी मचलती, फिर ठिठकती, दौड़ती, पर्वतों की इक नदी के, नीर सी होती गज़ल। रूहअफ़ज़ा सी, कभी ये मुगलई पकवान सी, खुश्बुओं की ज़ाफ़रानी, खीर सी होती ग़ज़ल। हसरतें इंसान की, इसमें नजर आतीं सभी, कामयाबी की कोई, तदबीर सी होती ग़ज़ल। ये रखा करती है वश में, जुर्अतें जो हैं गलत, भटकनों के पाँव में, जंजीर सी होती ग़ज़ल। इश्क में महबूब-ओ-आशिक में रहा है फ़र्क कब? हाँ कभी राँझा, कभी ये हीर सी होती ग़ज़ल। रंग सारे जिन्दगी के, इस में आते हैं नज़र, आदमी के दर्द से, दिलगीर सी होती ग़ज़ल। इक गजाला कर रही जो, मौत से जद्दोजहद, कंठ से उसके उभरती, पीर सी होती ग़ज़ल। ये फ़क़त महबूब के, चर्चा में सीमित कब रही, जीस्त की सच्चाई की, तस्वीर सी होती ग़ज़ल।

Additional information

Author

Dr. Virendra Kumar Shekhar

Pages

60

Format

Paperback

Language

Hindi

Publisher

Diamond Books

ज़िक्र से महबूब की तस्वीर सी होती ग़ज़ल, फ़िक्र से सारे जहां की पीर सी होती ग़ज़ल। वक्त के हालात की तहरीर सी होती ग़ज़ल, बेकसों के ख्वाब की तामीर सी होती ग़ज़ल। फूल की इक पंखुरी से नर्मो-नाजुक है बहुत, और जब ललकारती, शमशीर सी होती ग़ज़ल। एक अल्हड़ सी मचलती, फिर ठिठकती, दौड़ती, पर्वतों की इक नदी के, नीर सी होती गज़ल। रूहअफ़ज़ा सी, कभी ये मुगलई पकवान सी, खुश्बुओं की ज़ाफ़रानी, खीर सी होती ग़ज़ल। हसरतें इंसान की, इसमें नजर आतीं सभी, कामयाबी की कोई, तदबीर सी होती ग़ज़ल। ये रखा करती है वश में, जुर्अतें जो हैं गलत, भटकनों के पाँव में, जंजीर सी होती ग़ज़ल। इश्क में महबूब-ओ-आशिक में रहा है फ़र्क कब? हाँ कभी राँझा, कभी ये हीर सी होती ग़ज़ल। रंग सारे जिन्दगी के, इस में आते हैं नज़र, आदमी के दर्द से, दिलगीर सी होती ग़ज़ल। इक गजाला कर रही जो, मौत से जद्दोजहद, कंठ से उसके उभरती, पीर सी होती ग़ज़ल। ये फ़क़त महबूब के, चर्चा में सीमित कब रही, जीस्त की सच्चाई की, तस्वीर सी होती ग़ज़ल।

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