हंसते हंसाते रहो

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हास्‍य–व्‍यंग्‍य कविता को समर्पित एक नाम जो अपनी दृढ़ इच्‍छा शक्ति और अपराजेय संकल्‍प के साथ इन दिनों तेजी से उभरा है उस बुलंद शख्सियत का नाम प्रवीण शुक्‍ल है। प्रस्‍तुत संकलन में प्रवीण शुक्‍ल की हास्‍य-व्‍यंग्‍य कविताएं संकलित हैं।
एक ही संकलन में इतनी श्रेष्‍ठ रचनाओं की एक साथ प्रस्‍तुति अपने आप में बेमिसाल है।
प्रवीण शुक्‍ल हास्‍य-व्‍यंग्‍य के तो कुशल चितेरे हैं ही साथ ही छंद पर भी उनका पूरा अधिकार है। इसलिए उन्‍होंने अपनी काव्‍यकला और धारदार लेखन से देश के करोड़ो श्रोताओं के मन-मस्तिष्‍क पर अपना साम्राज्‍य स्‍थापित कर लिया है। उनकी कविताएं पढ़ने के बाद स्‍पष्‍ट हो जाता है कि वे हास्‍य-व्‍यंग्‍य के श्रेष्‍ठ, प्रबुद्ध और अप्रतिम कवि हैं। अर्से बाद हास्‍य-व्‍यंग्‍य के खुले झरोखे से हवा का ताजा और खुशबूदार झोंका आया है।
प्रबुद्ध पाठक जब अपने व्‍यस्‍त क्षणों में से कुछ समय निकालकर इस अनूठे काव्‍य संग्रह का अनुवाचन करेंगे तो प्रथम रचना से अंतिम रचना तक यह अहसास निश्चित ही जीवंत हो उठेगा कि काश इस संकलन में कुछ पृष्‍ठ और होते। प्रवीण शुक्‍ल ने इतने कम समय में और इतनी कम उम्र में अपनी काव्‍य-साधना से जो नयी जमीन तोड़ी है वो इतनी उर्वरा है कि उसमें केवल पौधे, फूल, तितली और शबनम ही नहीं वरन वो पेड़ भी हैं जो आने वाले कल की रे‍गिस्‍तानीतपन को अपनी शीतल छांव देकर झुलसी हुई मनुष्‍यता के मुर्दा अहसासों को ऑक्‍सीजन भी देंगे।
ISBN10-8128813552

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