संत शिरोमणि अनन्त श्री परमहंस राम मंगल दास जी (12.2.1893 – 31.12.1984) ने सन् 1933 ई. से सब शक्तियों सहित भगवान, देवी-देवता, ऋषि, मुनि, हर धर्म के पैगम्बर, सिद्ध, सन्त, पौराणिक तथा ऐतिहासिक महापुरुषों व महान नारियों के द्वारा उनके समक्ष ध्यान में तथा प्रत्यक्ष प्रकट होकर लिखवाये आध्यात्मिक पदों को मुख्यत: चार दिव्य ग्रन्थों में संग्रहीत किया। ये दिव्य ग्रन्थ उनके गोकुल भवन आश्रम में परमपूज्य रूप से सुरक्षित रखे हुये हैं। प्रथम ग्रन्थ जिसका नामकरण दिव्य रूप से श्री गुरु वशिष्ठ जी ने किया “श्री राम-कृष्ण लीला भक्तामृत चरितावली”, उसके प्रथम भाग का प्रकाशन श्री वशिष्ठ जी की आज्ञा व कृपा से सन् 1999 में हुआ। श्री गुरुकृपा से इसी प्रथम दिव्य ग्रन्थ का दूसरा भाग सन् 2001 में तथा दिव्य ग्रन्थ- 2 “श्री भक्त भगवन्त चरितामृत सुखविलास” सन् 2002 ई. में प्रकाशित किये गये। इसी श्रंखला का दिव्य ग्रन्थ-3 “श्री संत भगवन्त कीरति” सर्व जगत कल्याण के लिये सन् 2002 ई. में श्री गुरुकृपा से प्रकाशित किया गया।
विश्व के इन अलौकिक ग्रन्थों में भगवान के नाम की महिमा, सद्गुरु महिमा, सुरति शब्द योग, भगवान को पाने के अनेक मार्ग, उनमें आने वाली स्थितियाँ व अनुभव, ध्यान की विधियाँ, विभिन्न अनहद नाद, पूजन की विधियाँ, सब कमलों, चक्रों व नाड़ियों का वर्णन है। भगवान तथा देवी – देवताओं के स्वरूप, व सब लोकों का वर्णन किया गया है। हर धर्म, जाति व पेशे (व्यवसाय) के संत पुरुष व संत स्त्रियों ने लिखवाया है कि जीवन में कैसा आचार-विचार होना चाहिये, तथा उन्होंने किस प्रकार के कार्य किये जिनसे उनका कल्याण हुआ तथा उन्हें भगवान का धाम प्राप्त हुआ। निंदा करने वाले को आधा पाप मिलता है, तथा विभिन्न दुष्कर्मों के करने से किस भयावह नर्क में सजा मिलती है उसका वर्णन किया गया है। इस दिव्य ग्रन्थ-3 में श्री परमहंस राम मंगल दास जी को दर्शन देकर जिन्होंने दिव्य आध्यात्मिक पद लिखवाये हैं, सक्षिप्त रूप में वे इस प्रकार हैं :-
इन समस्त दिव्य ग्रन्थों की मुख्य बात यह है कि इनमें किसी विशेष गुरु या किसी विशेष साधना पद्धति का अनुसरण करने के लिये नहीं कहा गया है। इन दिव्य ग्रन्थों में सब धर्मों का सार, उनकी एकता, विश्व बंधुत्व, सबमें प्रेम व्यवहार, सद्भाव, दीनता व सेवा भाव का उपदेश दिया गया है। ये दिव्य ग्रन्थ हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध आदि सभी धर्मों के पालन करने वालों के लिये हैं। अपनी-अपनी परम्पराओं पर चलते हुये कैसे भगवान की प्राप्ति हो सकती है इसका वर्णन दिव्य सिद्ध संतों ने किया है। आदि गुरु परमपूज्य श्री स्वामी रामानन्द जी ( 1267 ई.-1458 ई.) ने प्रकट होकर प्रथम दिव्य ग्रन्थ में यह लिखाया है : “हरि हरिभक्तन का चरित, है अति सुख की खानि। रामानन्द यह कहत हैं, लेव वचन मम मानि।। पढ़ै सुनै जो ग्रन्थ यह, तन मन प्रेम लगाय। हर्ष शोक की शान्ति हो, भवसागर तरि जाय।।
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