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प्रकृति चेतना में आस्था की अनुभूति कराती उनकी कविता ‘गगन वह छुप गया देखो बदरिया छाए हैं’ है। इसी क्रम में ‘लो आज मधु मास आया’, ‘सुखी शरद में विश्व जब …’ ‘पनघट पर’, ‘कितना विकट घना अँधेरा, ‘जब रजनी की गीली पलकें, भर देती झींगुर के स्वर’, हार, ‘आदि कविताओं में प्रकृति और मानवीय भावों के पारस्परिक संबंधों को उद्घाटित करने का प्रयत्न है। अनेक कविताओं में यथार्थवादी अभिव्यक्ति भी है –
मेरे सोये भाग्य जगा दो, घर में चाहे आग लगा दो
कवि ने अपने किशोर प्रेम को भी अपने काव्य-यात्रा का विषय बनाया है। कभी अनजान, कभी एक तरफा प्यार की हिलोरें कवि को इतना विचलित करती हैं कि वह कुछ ऐसे उद्बोधन को ही सब कुछ मान लेता है यदि प्रिय तुम इसमें न अपना अपमान समझो मेरी पूजा स्वीकार न हो, रहने दो, आसुओं से यदि मोह न हो, बहने दो, सपनों का भव्य भवन ढहने दो., पर कम से कम दो चार जनों के आगे तुम मेरे हो इतना कह दो | प्रियतम से दूर रहना भी एक व्यथा है और उस व्यथा के दर्द को उभारती उनकी कविता ‘स्मृति’ है।
आज प्रिय से दूर हूँ, न जग में आराम विधुर सा पढ़ा हूँ, रहते प्रिय धाम । आज गई और चली गई – छोड़ मुझे कितनी दूर । बन गया हाय । उजेला भी – सघन तिमिर भरपूर ॥
Author | Dr. Shivshankar Awasthi |
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ISBN | 9789356847439 |
Pages | 136 |
Format | Paperback |
Language | Hindi |
Publisher | Junior Diamond |
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ISBN 10 | 9356847436 |
प्रकृति चेतना में आस्था की अनुभूति कराती उनकी कविता ‘गगन वह छुप गया देखो बदरिया छाए हैं’ है। इसी क्रम में ‘लो आज मधु मास आया’, ‘सुखी शरद में विश्व जब …’ ‘पनघट पर’, ‘कितना विकट घना अँधेरा, ‘जब रजनी की गीली पलकें, भर देती झींगुर के स्वर’, हार, ‘आदि कविताओं में प्रकृति और मानवीय भावों के पारस्परिक संबंधों को उद्घाटित करने का प्रयत्न है। अनेक कविताओं में यथार्थवादी अभिव्यक्ति भी है –
मेरे सोये भाग्य जगा दो, घर में चाहे आग लगा दो
कवि ने अपने किशोर प्रेम को भी अपने काव्य-यात्रा का विषय बनाया है। कभी अनजान, कभी एक तरफा प्यार की हिलोरें कवि को इतना विचलित करती हैं कि वह कुछ ऐसे उद्बोधन को ही सब कुछ मान लेता है यदि प्रिय तुम इसमें न अपना अपमान समझो मेरी पूजा स्वीकार न हो, रहने दो, आसुओं से यदि मोह न हो, बहने दो, सपनों का भव्य भवन ढहने दो., पर कम से कम दो चार जनों के आगे तुम मेरे हो इतना कह दो | प्रियतम से दूर रहना भी एक व्यथा है और उस व्यथा के दर्द को उभारती उनकी कविता ‘स्मृति’ है।
आज प्रिय से दूर हूँ, न जग में आराम विधुर सा पढ़ा हूँ, रहते प्रिय धाम । आज गई और चली गई – छोड़ मुझे कितनी दूर । बन गया हाय । उजेला भी – सघन तिमिर भरपूर ॥
ISBN10-9356847436
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