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‘यह भी नहीं’ सुप्रसि( कथा शिल्पी महीप सिंह का बहुचर्चित उपन्यास है। महानगरीय परिवेश में मानवीय सम्बन्धें के बनते-बिगड़ते सम्बन्धें का जैसा तल स्पर्शीय चित्राण इस उपन्यास स्त्राी-पुरुष सम्बन्धें की जटिलता के साथ, ऐसे सम्बन्धें की नई परिभाषा उद्घाटित करता है। महानगरीय जीवन मनुष्य में भौतिक जीवन की तृप्ति प्राप्त करने की अदम्य लालसा उत्पन्न कर देता है। यह लालसा उसमें भटकन उत्पन्न करती है। ऐसी भटकन उसमें लालसा की तृप्ति को किसी भी मूल्य पर अर्जित करने के प्रयासों को अध्कि वेगवती बनाती है। तृप्ति और भटकन का सत्त संघर्ष उसके जीवन में कोई ठहराव नहीं आने देता। वह अपने जीवन को डूबती-उतराती तरंगों के प्रवाह में अचेत ही सौंप देता है। ‘यह भी नहीं’ में अनेक समानान्तर स्थितियां भी हैं। यदि इसमें एक ओर बहुत भटकी हुई शांता है तो दूसरी ओर बहुत ठहरी हुई संतोष है। अत्यन्त अशांत स्थितियों में जब कभी शांता संतोष का सानिध्य प्राप्त करती है तो वह एक शांत नदी की भांति बहने लगती है। ‘यह भी नहीं’ में शांता का पति सोहन है जो किसी उद्दाम स्थिति में शांता के साथ वैवाहिक सम्बन्ध् तो जोड़ लेता है किन्तु जीवन-शान्ति उसकी उंगलियों से बालू की रेत की भांति सदा झरती रहती है। यह रेत कभी उसकी मुट्ठी में नहीं टिकती। भोलाराम पाठक, सुमी, डाॅ. पंडया आदि पात्रा अपनी विडम्बनाओं और व्याध्यिों के साथ इस उपन्यास में अवतरित हुए हैं और इस उपन्यास के बहुआयामी चरित्रा को उसारते हैं। ‘यह भी नहीं’ उपन्यास अंग्रेजी, पंजाबी, उडि़या, मलयालम, मराठी आदि अनेक भाषाओं में प्रकाशित हो चुका है। साप्ताहिक हिन्दुस्तान में यह धारावाहिक प्रकाशित होकर असीम लोकप्रियता प्राप्त कर चुका है।
Author | Mahip Singh |
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Pages | 124 |
Format | Paper Back |
Language | Hindi |
Publisher | Jr Diamond |
ISBN 10 | 8128839780 |
‘यह भी नहीं’ सुप्रसि( कथा शिल्पी महीप सिंह का बहुचर्चित उपन्यास है। महानगरीय परिवेश में मानवीय सम्बन्धें के बनते-बिगड़ते सम्बन्धें का जैसा तल स्पर्शीय चित्राण इस उपन्यास स्त्राी-पुरुष सम्बन्धें की जटिलता के साथ, ऐसे सम्बन्धें की नई परिभाषा उद्घाटित करता है। महानगरीय जीवन मनुष्य में भौतिक जीवन की तृप्ति प्राप्त करने की अदम्य लालसा उत्पन्न कर देता है। यह लालसा उसमें भटकन उत्पन्न करती है। ऐसी भटकन उसमें लालसा की तृप्ति को किसी भी मूल्य पर अर्जित करने के प्रयासों को अध्कि वेगवती बनाती है। तृप्ति और भटकन का सत्त संघर्ष उसके जीवन में कोई ठहराव नहीं आने देता। वह अपने जीवन को डूबती-उतराती तरंगों के प्रवाह में अचेत ही सौंप देता है। ‘यह भी नहीं’ में अनेक समानान्तर स्थितियां भी हैं। यदि इसमें एक ओर बहुत भटकी हुई शांता है तो दूसरी ओर बहुत ठहरी हुई संतोष है। अत्यन्त अशांत स्थितियों में जब कभी शांता संतोष का सानिध्य प्राप्त करती है तो वह एक शांत नदी की भांति बहने लगती है।
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