एम.एम. चन्द्रा का यह तीसरा उपन्यास है। पिछले साल इनका लघु उपन्यास फ्प्रोस्तोरय् प्रकाशित हुआ था जो 1990 के दशक के मजदूर आन्दोलन पर केंद्रित था। जिसका कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ।
लेखक के व्यंग्य, समीक्षा, आलोचना और समसामयिक रचनाओं का विभिन्न पत्रा-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन। हास्य-व्यंग्य पत्रिका ‘अट्टðहास’ के तीन अंकों ;आलोचना विशेषांकद्ध और सुसंभाव्य पत्रिका का सम्पादन किया है। लेखक की विभिन्न विषयों पर एक दर्जन से अध्कि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
यह उपन्यास इण्डिया के उस भारत के गाँव की कहानी है जो आध्ुनिक विकास की बलि चढ़ जाता है। उसके बाद यह सिलसिला चला और यह नारा ‘यह गाँव बिकाऊ है’ बार-बार, कभी किसी राज्य से तो कभी किसी राज्य से आता रहा।
1990 के बाद जब नयी आर्थिक नीतियां पूरे देश में लागू हुयीं तब सबसे पहले मजदूर वर्ग को इसने अपना निशाना बनाया और पिफर ध्ीरे-ध्ीरे किसानों को अपने चंगुल में पफंसा लिया। जिससे निकलने की नाकाम कोशिश किसान करता रहा। किसानों के लिए सरकार ने जो रियायतें दीं, वे भी किसानों की जिन्दगी को बदहाल होने से न बचा सकीं। इसका नतीजा यह हुआ कि एक तरपफ देश में किसानों की आत्महत्या का एक दौर शुरू हुआ तो दूसरी तरपफ किसानों का अंतहीन आन्दोलन शुरू हुआ, जो आज तक जारी है।
किसानों ने अपने हक के लिए लम्बी लड़ाई लड़ी। दो दशक में सबसे ज्यादा यदि किसी ने संघर्ष किया है तो वो किसान ही थे। लेकिन उनके पक्ष में सिवाय आश्वासन के कुछ भी नहीं आया। आखिर क्यों? क्या किसान आन्दोलन में कमी थी या राजनीतिक पार्टियों में कमी थी या किसान आन्दोलन भटकाव का शिकार था? किसान आन्दोलन चलाने वाली जितनी भी धराएं देश के अंदर मौजूद हैं। उनका प्रतिनिध् िइस उपन्यास में आया है। चाहे वह संसदीय तरीके से किसानों की समस्या हल करना चाहता हो या गैर संसदीय तरीके से।