उपनिषदों में वर्णित “द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया” जैसी बात है यह। शायद यह उससे भी थोड़ा अलग है क्योंकि तब मैं किसी रस में होता हूँ तो वहाँ कोई हिस्सा मेरा अलग बैठा साक्षी वाक्षी नहीं रहता बल्कि मैं पूरा का पूरा उस रस से युक्त हो जाता हूँ। जीवन को उसमें डूब कर जीता हूँ – हर क्षण को, हर रस को। यही मेरा वर्तमान है। इसमें बुद्ध की उपेक्षा, महावीर की वीतरागता, कृष्ण की मधुरता और जीसस क्राइस्ट का कष्ट सहन समान रूप से मौजूद होते हैं। साथ ही होता है अभिनव गुप्त की ईश्वर प्रत्यभिज्ञा और सुकरात का रहस्य बोध।
संक्षेप में यही मेरी जीवन चर्चा है- मेरा भागवत पथ जिसने बुद्ध से शुरू होकर वासुदेव तक मुझे पहुँचा दिया। मैं वासुदेव को जी रहा हूँ। यह सब मैं कोई आत्मप्रशंसा में नहीं कह रहा हूँ। इन बातों को कहने के पीछे एक ही प्रयास है मेरी कि शायद तुम्हें भी अपने मार्ग को ढूँढ़ने में कुछ मदद मिल सके।
-स्वामी चैतन्य वीतराग